सर्वज्ञ शङ्कर
" अंतःकरण शुद्धि के अनुभूत प्रयोग " : -
जब रात्री को सोने लगें तो मन - ही मन अपने शरीर को छः भागों में बाँट लें ।
* पाँव से लेकर गुदापर्यन्त - माटी है ।
* गुदा से मुत्रेन्द्रिय पर्यन्त - जल है , पानी है ।
* मुत्रेन्द्रिय से नाभि पर्यन्त - अग्नि है ।
* नाभि से हृदय पर्यन्त - वायु है ।
* हृदय से कण्ठ पर्यन्त - आकाश है ।
* और कण्ठ से भौंहो { आँख से उपर जो बाल है } के बीच - मन है ।
क्योंकि , मन को ज्यादा काम इसी हिस्से में धूमफिरकर करना पड़ता है।
और उसके ऊपर समझ लें कि परमात्मा है ।
नारायण ! तो मिट्टी को पानी में और पानी को आग में , आग को हवा में , हवा को आसमान में और आसमान को मन में , मन को परमात्मा में लीन कर लें और सो जाये। और प्रातः जब नींद टूटे तो फिर परमात्मा में - से मन को और मन में - से आसमान , आसमान में - से वायु , वायु में - से अग्नि , अग्नि में - से जल , जल में - से पृथ्वी निकली और यह शरीर बन गया और फिर अपने इस शरीर का अध्यास करके माने आरोपित करके , कल्पित करके फिर इसमें बाहणत्व , हिन्दुत्व आदि की कल्पना करके व्यवहार में प्रवृत्त हो । शाम को सोते समय सबका बध करके , सबको मार करके सबका संहार करके अपने स्वरूप में सो जाये और प्रातः काल जब जगे तो अपने स्वरूप में से निकलकर और कल्पना करके कि यह हम व्यवहार में प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार यदि छः माह तक अभ्यास करे तो यह जो जाग्रत् अवस्था है, यह केवल स्वप्न के समान हो जायेंगी । अर्थात् प्रतिभासिक हो जायेगी और जो सुषुप्ति है वह समाधि हो जायेगी और अतःकरण की शुद्धि इसके द्वारा सम्पन्न होगी । काम , क्रोन , लोभादि सब स्वप्न के समान भासने लगेंगे । न कोई माला फेरना , न मंदिर जाना , न दान देना , न पूजा पाठ करना ।
लेकिन उपरोक्त अभ्यास तो करना पड़ेगा । बाकी आपकी मर्जी ।
श्रीनारायणन हरिः ।
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