दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है| आज्ञा चक्र का वेधन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो| यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| आप यह देह नहीं हैं| सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की आप परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, आप और आपके परम पिता एक हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण आप में हैं और आपके माध्यम से परमात्मा समस्त सृष्टि में व्यक्त हो रहे हैं|
जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो आप कर सकते हैं| अपने सब गुण-अवगुण, सब अच्छाइयां-बुराइयां और अपनी सब खूबियाँ-कमियाँ सद्गुरु के चरण कमलों में अर्पित कर दो|
ॐ तत्सत्|
No comments:
Post a Comment