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कल जब मैं मर जाऊँगा (#Aalokry)

कल जब मैं मर जाऊँगा। तब तुम मेरे लिए आंसू बहाआगे  पर मुझे पता नही चलेगा तो  उसके बजाय  आज तुम मेरी इम्पॉर्टन्टस को महसूस क...

17 June 2016

shri yantra



श्री यन्त्र


                                                                    ।। नमः शिवाय ।।
श्री यन्त्र को यंत्र शिरोमणि श्रीयंत्र, श्रीचक्र व त्रैलोक्यमोहन चक्र भी कहते हैं । धन त्रयोदशी और दीपावली को यंत्रराज श्रीयंत्र की पूजा का अति विशिष्ट महत्व है । श्री यंत्र या श्री चक्र सारे जगत को वैदिक सनातन धर्म, अध्यात्म की एक अनुपम और सर्वश्रेष्ठ देन है। इसकी उपासना से जीवन के हर स्तर पर लाभ का अर्जन किया जा सकता है, इसके नव आवरण पूजन के मंत्रों से यही तथ्य उजागर होता है।
मूल रूप में श्रीयन्त्र नौ यन्त्रों से मिलकर एक बना है , इन नौ यन्त्रों को ही हम श्रीयन्त्र के नव आवरण के रूप में जानते हैं, श्री चक्र के नव आवरण निम्नलिखित हैं:-
1:- त्रैलोक्य मोहन चक्र.......- तीनों लोकों को मोहित करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
2:- सर्वाशापूरक चक्र.......- सभी आशाओं, कामनाओं की पूर्ति करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
3:- सर्व संक्षोभण चक्र.......- अखिल विश्व को संक्षोभित करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
4:- सर्व सौभाग्यदायक चक्र........- सौभाग्य की प्राप्ति,वृद्धि करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
5:- सर्वार्थ सिद्धिप्रद चक्र.......- सभी प्रकार की अर्थाभिलाषाओं की पूर्ति करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
6:- सर्वरक्षाकर चक्र........- सभी प्रकार की बाधाओं से रक्षा करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
7:- सर्वरोगहर चक्र.......- सभी व्याधियों, रोगों से रक्षा करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
8:- सर्वसिद्धिप्रद चक्र.......- सभी सिद्धियों की प्राप्ति करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।
9:- सर्व आनंदमय चक्र.......- परमानंद या मोक्ष की प्राप्ति करने की क्षमता से परिपूर्ण चक्र है ।

इसके अतिरिक्त श्रीयन्त्र का एक रहस्य ओर है कि श्रीयन्त्र वेदों, कौलाचार व अगमशास्त्रों में उल्लेखित स्वयंसिद्ध भैरवी चक्र या संहार चक्र का ही विस्तृत स्वरूप है , श्रीयन्त्र के क्रमशः 7,8 व 9 वें (बिंदु, त्रिकोण और अष्टकोण) चक्र ही संयुक्त होकर मूल स्वयंसिद्ध भैरवी चक्र है , व बाहर के अन्य 1 से 6 तक के चक्र उसका सृष्टि क्रम में विस्तार मात्र है, इसीलिए श्रीचक्र या श्रीयन्त्र का समयाचार, दक्षिणाचार, व कौलाचार सहित अन्य सभी पद्धतियों से पूजन अर्चन किया जाता है !
श्रीयंत्र के ये नवचक्र सृष्टि, स्थिति और संहार चक्र के द्योतक हैं । अष्टदल, षोडशदल और भूपुर इन तीन चक्रों को सृष्टि चक्र कहते हैं। अंतर्दशार, बहिर्दशार और चतुर्दशार स्थिति चक्र कहलाते हैं। बिंदु, त्रिकोण और अष्टकोण को संहार चक्र कहते हैं। श्री श्री ललिता महात्रिपुर सुंदरी श्री लक्ष्मी जी के यंत्रराज श्रीयंत्र के पिंडात्मक और ब्रह्मांडात्मक होने की बात को जो साधक जानता है वह योगीन्द्र होता है ।

श्रीयंत्र ब्रह्मांड सदृश्य एक अद्भुत यंत्र है जो मानव शरीर स्थित समस्त शक्ति चक्रों का भी यंत्र है। श्रीयंत्र सर्वशक्तिमान होता है। इसकी रचना दैवीय है। अखिल ब्रह्मांड की रचना का यंत्र होने से इसमें संपूर्ण शक्तियां और सिद्धियां विराजमान रहती हैं। स्व शरीर को एवं अखिल ब्रह्मांड को श्रीयंत्र स्वरूप जानना बड़े भारी तप का फल है। इन तीनों की एकता की भावना से शिवत्व की प्राप्ति होती है तथा साधक अपने मूल आत्मस्वरूप को प्राप्त कर लेता है ।

श्री यंत्र का आध्यात्मिक स्वरूप
पूर्ण विधान से श्री यंत्र का पूजन जो एक बार भी कर ले, वह दिव्य देहधारी हो जाता है। दत्तात्रेय ऋषि एवं दुर्वासा ऋषि ने भी श्री यंत्र को मोक्षदाता माना है। इसका मुख्य कारण यह है कि मनुष्य शरीर की भांति, श्री यंत्र में भी 9 चक्र होते हैं। पहला चक्र मनुष्य शरीर में मूलाधार चक्र होता है। शरीर में यह रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में, गुदा और लिंग के मध्य में है। श्री यंत्र में यह अष्ट दल होता है। यह रक्त वर्ण पृथ्वी तत्व का द्योतक है। इसके देव ब्रह्मा हैं और यह लिंग स्थान के सामने है। श्री यंत्र में इसकी स्थिति चतुर्दशार चक्र में बनी होती है। यह जल तत्व का द्योतक है। इसके देव विष्णु भगवान हैं। तीसरा चक्र मेरु दंड के अंदर होता है। यह दश दल का होता है। श्री यंत्र में यह त्रिकोण है और अग्नि तत्व का द्योतक होता है। यंत्र के देव बुद्ध रुद्र माने गये हैं। चैथा चक्रअनाहत चक्र होता है। मनुष्य शरीर में यह हृदय के सामने होता है। यह द्वादश दल का है। श्री यंत्र में यह अंतर्दशार चक्र कहा जाता है। यह वायु तत्व का द्योतक माना जाता है। इसके देव ईशान रुद्र माने गये हैं। पांचवां चक्र विशुद्ध चक्र होता है। मनुष्य शरीर में यह कंठ में होता है। यह 16 दल का है। श्री यंत्र में यह अष्टकोण होता है। यह आकाश तत्व का द्योतक माना गया है। इसके देव भगवान शिव माने जाते हैं। छठा चक्र आज्ञा चक्र होताहै। मनुष्य शरीर में यह मेरुदंड के अंदर ब्रह्म नाड़ी में माना गया है। यह 2 दलों का है। श्री यंत्र में इसकी स्थिति त्रिकोण की मानी जाती है। सातवां चक्र सहस्त्रार होता है जिसे श्रीचक्र में बिंदु से दर्शाया गया है ।


03 June 2016

रोटी का कर्ज

पत्नी बार बार मां पर इल्जाम लगाए जा
रही थी और पति बार बार उसको अपनी हद में
रहने की कह रहा था
लेकिन पत्नी चुप होने का नाम ही नही ले
रही थी व् जोर जोर से चीख चीखकर कह रही
थी कि
"उसने अंगूठी टेबल पर ही रखी थी और तुम्हारे
और मेरे अलावा इस कमरें मे कोई नही आया
अंगूठी हो ना हो मां जी ने ही उठाई है।।
बात जब पति की बर्दाश्त के बाहर हो गई तो
उसने पत्नी के गाल पर एक जोरदार तमाचा दे
मारा
अभी तीन महीने पहले ही तो शादी हुई थी ।
पत्नी से तमाचा सहन नही हुआ
वह घर छोड़कर जाने लगी और जाते जाते पति
से एक सवाल पूछा कि तुमको अपनी मां पर
इतना विश्वास क्यूं है..??
तब पति ने जो जवाब दिया उस जवाब को
सुनकर दरवाजे के पीछे खड़ी मां ने सुना तो
उसका मन भर आया पति ने पत्नी को बताया
कि
"जब वह छोटा था तब उसके पिताजी गुजर गए
मां मोहल्ले के घरों मे झाडू पोछा लगाकर जो
कमा पाती थी उससे एक वक्त का खाना
आता था
मां एक थाली में मुझे परोसा देती थी और
खाली डिब्बे को ढककर रख देती थी और
कहती थी मेरी रोटियां इस डिब्बे में है
बेटा तू खा ले
मैं भी हमेशा आधी रोटी खाकर कह देता था
कि मां मेरा पेट भर गया है मुझे और नही
खाना है
मां ने मुझे मेरी झूठी आधी रोटी खाकर मुझे
पाला पोसा और बड़ा किया है
आज मैं दो रोटी कमाने लायक हो गया हूं
लेकिन यह कैसे भूल सकता हूं कि मां ने उम्र के
उस पड़ाव पर अपनी इच्छाओं को मारा है,
वह मां आज उम्र के इस पड़ाव पर किसी अंगूठी
की भूखी होगी ....
यह मैं सोच भी नही सकता
तुम तो तीन महीने से मेरे साथ हो
मैंने तो मां की तपस्या को पिछले पच्चीस
वर्षों से देखा है...
यह सुनकर मां की आंखों से छलक उठे वह समझ
नही पा रही थी कि बेटा उसकी आधी
रोटी का कर्ज चुका रहा है या वह बेटे की
आधी रोटी का कर्ज...

अगर तुम अपने को शिवयोगी कहते हो


"अगर तुम यह कहते हो की मैं शिवानंद का शिष्य हूँ, अगर तुम अपने को शिवयोगी कहते हो, तो उसके जैसी perfection ला कर दिखाओ| अपने यौवन में जब बाबाजी boxer थे तब उन्होंने जम के boxing करी| तब उन्होंने अपना धर्म निभाया, तब उन्होने यह नही कहा की भाई मैं तो प्यार का सागर हूँ, मैं कैसे किसी को आक्रमण कर सकता हूँ? उन्होने तब जो भी किया वो उनका धर्म था| और यही नहीं, जीवन के हर मोड़ पर उन्होने अपना सर्वोत्तम प्रदर्शन किया| चाहे वह अपनी पत्नी से प्रेम करने की ही बात क्यों ना हो| जब गुरु माँ उनके जीवन में आईं, उन्होने यह नही कहा की मैं तो वैरागी हूँ, मैं तो परम ज्ञानी हूँ, मैं सिर्फ़ साधना करूँगा| उन्होने पलायन का मार्ग कभी नहीं चुना| तो तुम यह कैसे कह सकते हो की तुम्हे परिवार से भिन्न होना है? उन्होने स्वयं पारिवारिक माहौल में रह कर अपनी उन्नति करी ताकि कोई यह न कहे की परिवार त्याग कर ही स्वयं को जागृत करना संभव है| तुम सभी शिवयोग का बीड़ा उठाए हुए हो, तुम पर ज़िम्मेदारी है| एक शिष्य की पहचान गुरु से तो है ही है किंतु एक गुरु का भी परिचय उसके शिष्य से है| शिवयोगी होने के नाते तुम बाबाजी का नेतृत्व करते हो| एक शिवयोगी का परिचय यह है की वह १) दिल का मज़बूत होता है| २) मासूमियत और प्रेम की प्रतिमूर्ति होता है| ३) अपने सिद्धांतों का पक्का होता है| ४) चरित्र का पवित्र होता है| ५) साधना में तपस्वी होता है| धर्म की आड़ में किसी को परेशान करना और धर्म के डंडे से परिवार से भिन्न होने की बात करना कदापि नहीं है शिवयोग| बाबाजी ने अपने हर संबंध का धर्म बखूबी निभाया - चाहे वह पिता का हो, चाहे वह एक पति का हो और, जैसा की तुम मुझसे बेहतर बताओगे, एक गुरु का| और यह भी याद रखो की एक सिद्ध, एक अवधूत मार्गदर्शन करने हेतु जन्म लेता है, अपनी पूजा करवाने के लिए नहीं| और तुम भी बाबाजी की जीवन शैली से सीखना| नहीं तो तुम भी वही करोगे जो सारी दुनिया कर रही है - भगवान को मंदिरों में बंद करने की प्रथा मानो कारावास में डाल दिया हो| बाबाजी के जीवन से सीख लो| प्रेममय बनो, करुणामय बनो| गुरु को साधारण जीव जानो| Judge मत करो की वह क्या कर रहा है, क्या खा रहा है, वह क्या पहन रहा है, कैसे वेश में है, क्या उसका बोलने का ढंग है| तुम केवल और केवल उसकी दी हुई सीखों को अपने भीतर अंतरसात करो| सिर्फ़ उससे मार्गदर्शन की प्रार्थना करो| उसके दिव्य सागर से कुछ ज्ञान अर्जन की कामना करना| गुरु को लक्ष्य के रूप में देखो, की मुझे ऐसा बनना है और यह कैसे होगा, हिमालय पर जाकर नहीं, किंतु अपने भीतर का हिमालय जागृत करो क्योंकि आज न वह हिमालय बचा है जिसका वर्णन शस्त्रों में है और न ही आज वह परिस्थतियाँ हैं जो की तुम्हे यह अवसर प्रदान करें की तुम जंगलों में रह कर भी जी लोगे| और मैं कहता हूँ ज़रूरत भी क्या है? जब तुम्हारा गुरु संसार में रह कर शिवानंद बना तो तुम्हे परिवार में रहना ही रहना है| अपने मन में गुरु की एक काल्पनिक छवि मत बनाना नहीं तो भाव यही आएगा की यह अध्यात्मिक उन्नति और आत्म साक्षात्कार तो दूर दराज़ किसी दुनिया की बातें हैं और मुझसे नहीं होगा यह सब| सामान्य बनो| तुम्हारा गुरु भी एक साधारण जीव ही है| वह भी वैसे ही ख़ाता है, सोता है और नित्य क्रियाएं करता है| ऐसा नहीं है की यदि उसको भोजन करना होता है तो वह भगवान से प्रार्थना करने लगता है की यह भोजन अपने आप मेरे मुख में चले जाए| वह सारे वही कार्य करता है जो सब तुम सब करते हो| इसीलिए कहता हूँ की कर्मठ बनो, त्याग की बात इस समय मत करो| कुछ त्यागना ही है तो गुरु के चरणों में अपनी विकारों का त्याग करो| सिद्ध मार्ग है ही सरलता का मार्ग| हँसने की बात है तो हँसो, खाने की बारी है तो खाओ, परिवार को प्रेम देने की बारी है तो उनसे प्रेम करो| साधारण बनो, सरल बनो| जिस समय जो उचित है और जो तुम्हारा उत्तर्दायित्व है, उसे निभाओ| खुश रहो और सहजता से अपनी अध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो| बच्चा बनने में अपना आनंद है, परम आनंद है| अब ऊँची पसंद और उँची सोच का मुखौटा मत पहनना| खुल के जीवन जीना| किसी भी भाव को संयम का रूप मत लेने देना| तुम्हारा गुरु बहुत सरल है| एक आम मनुष्य का जीवन जीकर सिद्धत्व को प्राप्त किया है उसने| तो क्या तुम्हें पलायन करने की आवश्यकता है?