ख़्वाब अगर है तो ज़िंदा रहे
"एक ख्वाब का पन्ना दिल में था जो दिल में था वो कोरा था जो कोरा मैं भरने को निकला समझ समझ के जो मैं समझा वो ख्वाब जीवन का एक मोहरा था " वक्त बीतता जा रहा है लम्हों का बेशब्री से इन्तजार करने की आदतों का लम्हा खुद शिकार करने लगा है । कल की तरह आज भी सूरज की वो दहकती रश्मियाँ उतनी ही ब्याकुलता से मेरे ऊपर गिरी जैसे की आषाढ़ में वो हर किसी के ऊपर कहर बनके गिरती है। खैर जो भी हो इन तपते धूप में बैठा मैं एक ख्वाब में डूबा था कि क्या समय ने मेरे हौसले का शिकार कर लिया है ? क्या मेरी परछाई एक ज़िंदा लाश की है ? इन्ही सवालों में उलझते हुए मैं अपने ख्वाब की दुनिया में प्रवेश कर गया । अब सिर्फ मैं हक़ीक़त में मात्र एक परछाई था क्योंकि सही सन्दर्भ में मै अपने ख़्वाबों की दुनिया का एक बेहतरीन किरदार बन चुका था । मेरे ख़्वाब मजबूत होते जा रहे थे और रंगमंज पे मेरे अभिनय से तालियां की गड़गड़ाहट मेरे अभौतिक शरीर को आत्मिक ख़ुशी दे रही थी । मैं अपने चारों तरफ के वास्तविक परिवेश से काफ़ी दूर जा चुका था क्योंकि भाष्कर की पुकार का अब हमपे कोई असर नहीं था । सुबह इस काया पे गिरते रश्मियों ने जो चिलचिलाहट का निशान छोड़ा था वो अब गायब हो चुका था , हमारा काल्पनिक पर सशक्त दुनिया इतना ताक़तवर हो चुका था कि हमे पता ही नहीं चला कब प्रातःकालीन सूरज अपने सायंकालीन गृह में प्रवेश कर गया । चारों तरफ सन्नाटा पसरता जा रहा था और खामोशियाँ बार बार हमपे प्रहार करने लगी थी लेकिन मुझमे इतनी दरियादिली नहीं बची थी कि मैं अपने ख़याली दुनिया के अपने अभिनय को बीच में ही खंडित कर घर को लौट चलु ,सही कहु तो ये सम्भव भी नहीं था क्योंकि मैं इतना अंदर घुस चुका था कि एक झटके में बाहर आना दुष्कर था । मैंने सोचा क्यों न पूरा अभिनय करके ही बाहर आया जाय और इसी कश्मकश्म में मैं खुद को बेहतर साबित करने के लिए उसमे डूबता गया । मुझे स्पष्ट तो याद नहीं पर एक धुंधली से छवि मेरे सामने जरूर है । मैं एक अनजान राश्ते का मुसाफ़िर था जहाँ ख़ामोशी के सिवाय कोई मेरे साथ नहीं था । एक दूर खंड से बुझती हुई लौ में मैं बड़ी मुश्किल से खुद के पाओं को आपस में टकराने से रोक पा रहा था । मेरे पैरों को उस समय कुछ पीछे खिंच रहा था और वो बड़ा होता जा रहा था वो मेरे अंदर के भय को बढ़ाता जा रहा था ।जैसे जैसे एक एक कदम मैं आगे बढ़ रहा था मेरे आँखों के सामने अन्धेरा होता जा रहा था फिर भी मेरे सामने बढ़ने के सिवाय कोई विकल्प न था । मुझे बस जल्द से जल्द रौशनी के परिधी में शामिल होना था और मिटते हुए राश्ते को जल्द से जल्द खत्म करना था लेकिन अभी मै इनसब से बहुत दूर था ।उस वक्त मेरे हाथ में एक डण्डा था और जब जल्दबाजी के चक्कर में मैं गिरता था तो वो छड़ी भी गिर जाती थी और जब मैं उठता था तो उसे भी उठा लेता था मुझे समझना मुश्किल था कि आखिर ये मात्र डंडा था या फिर कोई उम्मीद या फिर कोई हौसला फिर भी न जाने मै क्यों उस डंडे को ढो रहा था । बात यही पे खत्म नहीं होती है अँधेरा अपनी हद पार कर रहा था वो मेरे चेहरों को दूर के लौ से दूर करने को आतुर था यहाँ भी हक़ीक़त में समझना मुश्किल था कि वो मात्र रौशनी का पुंज था या मेरा पूरा भविष्य जो भी हो अपनी ख़याली दुनिया में मैं बेशक वहां पहुचने को आतुर था ।एक बात तो मुझे साफ़ समझ आ रही थी कि जैसे जैसे मेरी लौ से निकटता बढ़ती जा रही थी मेरा दुश्मन जो मेरे पाँव को खिंच रहा था वो बढ़ा हो रहा था इसके बावजूद मैं आगे बढ़ रहा था यानि मेरी ताक़त बढ़ती जा रही थी शायद दृणइच्छा शक्ति के कारण ऐसा हो रहा था और ये चलने का सिलसिला आज भी यूँ ही ज़िंदा है । आज भी जब मैं एकांत में बैठता हु तो जैसे ही पलके गिरती है तत्क्षण वही अँधेरी गली वही सुनसान रास्ता वही अज्ञात भ्रमित भय और मेरे वही आगे बढ़ते रहने का जुनून दिखता है। ये मेरे ख्वाब भले आपको कपोल कल्पित लगे लेकिन एक सच तो जरूर है आपके मन मष्तिष्क में भी यही ख़यालात आता होगा। एक बात तो तय है कि हम मानव है हम गिरते है उठते है हम रोते है हँसते है हम अकड़ते है सिकुड़ते है इसलिए तो हम आगे बढ़ने के लिए लड़ते है । हमारी प्रकृति चोरी वोरी नहीं बल्कि जो अपने हक़ में है उसे लड़ के लेने की है । हमारे सामने तमाम अभाव होते है तमाम चुनौतियां होती है लेकिन हम उसे सहर्ष स्वीकार करते है क्योंकि हम मानव है हम जानते है कि कुछ बड़ा करने के लिय कुर्बानियाँ देनी होती है । हम अपने अभाव को अपना हथियार बनाते है और इसी से वो इतिहास लिख जाते है जिसका पन्ना किताबों में नहीं लोगों के दिलों में होता है ।वही कोरा पन्ना जिसे भरने के लिए हर कोई ब्याकुल व् आतुर रहता है । कोरा पन्ना हर किसी के सीने में है बस कुछ लोग अपने तूफानी कर्मों से सिर्फ खुद के ही नहीं वरन् अन्यों के पन्नों पे भी खुद का खिलता इतिहास लिख जाते है और कुछ लोग उपर्युक्त ख़्वाब का अँधेरी दास्तां खुद के पन्नों पे ही लिख के सिमट जाते है । अब निर्णय आपका कि क्या ख्वाब से हक़ीक़त का श्रृंगार करना है या ख़्वाब में लिपटकर सर पटक देना है ।मैं तो बस यही सोचता हु जो आपको समर्पित कर रहा हु ख्वाबों के सिलसिले से एक शहर बसानी है जहाँ होते है पुरे अरमां वो महल बनानी है कल का एक सच कि कल तो मिट जाएगा जो रहे वर्षों तक ज़िंदा ,कोरे पन्नों पे वो लहू लगानी है ।
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